अल्मोड़ा - सीमा पर तनाव, पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री की पत्नी थीं कुमाऊं की शीला पंत, आइरीन पंत से बेगम राणा बनने की कहानी

अल्मोड़ा/ उत्तराखंड - भारत-पाकिस्तान के बीच एक बार फिर तनाव चरम पर है। सीमाओं पर गोलियों की गूंज है, कूटनीतिक रिश्ते लगभग ठप हो चुके हैं और दोनों देशों के बीच युद्ध जैसे हालात बनते दिख रहे हैं। लेकिन इस बार जब दोनों मुल्क आमने-सामने खड़े हैं, तब इतिहास की एक भूली-बिसरी मगर बेहद अहम शख्सियत की याद ज़रूरी हो जाती है — एक ऐसी महिला जो भारत में जन्मी, पाकिस्तान की ‘फर्स्ट लेडी’ बनीं, और दोनों देशों को जोड़ने वाली एक मानवीय कड़ी बन गईं।

उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में 13 फरवरी 1905 को जन्मीं शीला आइरीन पंत ने इतिहास में एक अनोखी जगह बनाई। एक हिंदू ब्राह्मण परिवार से होने के बावजूद, उनके दादा तारा दत्त पंत ने 1871 में ईसाई धर्म अपना लिया था। इसके चलते उनका पालन-पोषण एक ईसाई परिवार में हुआ, इस कारण पंत बिरादरी ने परिवार का सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर दिया। लेकिन समाज के बंधनों से ऊपर उठकर उन्होंने अपने जीवन को सेवा और बदलाव के लिए समर्पित किया।

अल्मोड़ा और लखनऊ में शिक्षा पाने के बाद शीला आइरीन ने लखनऊ विश्वविद्यालय से इकोनॉमिक्स और सोशियोलॉजी में डबल मास्टर्स किया। उनका करियर दिल्ली के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर के रूप में शुरू हुआ। वहीं राजनीतिक हलचलों में भी वह सक्रिय रहीं और 1928 के साइमन कमीशन विरोध जैसे आंदोलनों में भी भाग लिया।
इसी दौरान उनकी मुलाकात मुस्लिम लीग के युवा नेता लियाकत अली खान से हुई — एक ऐसा रिश्ता जो आगे चलकर न सिर्फ वैवाहिक बंधन में बदला, बल्कि इतिहास की दिशा भी तय कर गया। 1933 में दोनों ने विवाह किया और शीला आइरीन पंत, बेगम राणा लियाकत अली खान बन गईं।
पाकिस्तान की ‘मदर ऑफ द नेशन’ -
1947 में भारत-पाक विभाजन के बाद लियाकत अली खान पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बने, और राणा लियाकत अली खान ने भी पाकिस्तान में सार्वजनिक जीवन में अहम भूमिका निभाई। 1949 में उन्होंने ऑल पाकिस्तान वीमेन एसोसिएशन (APWA) की स्थापना की, और देश में महिला अधिकारों के लिए एक मज़बूत आवाज बनीं। वे पाकिस्तान की पहली महिला एम्बेसडर बनीं — नीदरलैंड्स, इटली और ट्यूनिशिया में उन्होंने देश का प्रतिनिधित्व किया। वह संयुक्त राष्ट्र महासभा में पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व करने वाली पहली मुस्लिम महिला भी बनीं।
पति की 1951 में हत्या के बाद उन्होंने सामाजिक कार्यों, कूटनीति और राजनीति में अपना योगदान जारी रखा। ज़ुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार में वह सिंध की पहली महिला गवर्नर बनीं। 1977 में जब जनरल ज़िया-उल-हक़ ने मार्शल लॉ लगाया और महिला अधिकारों पर पाबंदियाँ लगाने की कोशिश की, तब बेगम राणा ने खुलकर विरोध किया।
उन्होंने कहा था > “अगर इस्लाम महिलाओं को सम्मान देता है, तो ये क़ानून इस्लामी नहीं हो सकता।” उनकी इसी निर्भीकता और योगदान के चलते उन्हें पाकिस्तान में “**मदर ऑफ द नेशन**” कहा गया।
एक महिला, दो देश, एक विरासत -
13 जून 1990 को बेगम राणा का निधन हो गया, लेकिन वह आज भी पाकिस्तान में महिला सशक्तिकरण की प्रतीक मानी जाती हैं। और जब आज भारत और पाकिस्तान के रिश्ते तनाव के दौर से गुजर रहे हैं, तब राणा की विरासत हमें याद दिलाती है — कि मज़हब, सरहद और सियासत से ऊपर इंसानियत होती है।
उत्तराखंड की पहाड़ियों में जन्मी एक महिला, जो पाकिस्तान की सत्ता के उच्चतम शिखर तक पहुँची — वह न सिर्फ इतिहास का हिस्सा हैं, बल्कि एक ज़िंदा पुल भी हैं, जो हमें ये सिखाती हैं कि बदलाव सिर्फ तलवार या तख़्त से नहीं, सोच और सेवा से भी आता है।
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