Igas Bagwal - दिवाली के 11 दिन बाद खुशी के मारे झूम उठते हैं पहाड़वासी, जानिए इगास लोकपर्व का महत्त्व 
 

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Uttarakhand Igas Bagwal :  उत्तराखंड के लोक पर्व इगास को अब प्रदेश में हर साल धूमधाम से मनाया जाता है, दिवाली की धूम के बाद पहाड़ में लोगों में इगास दिवाली यानि बूढ़ी दिवाली का इंतज़ार रहता है। पहाड़ में दीपावली के ठीक 11 दिन बाद ईगास (बूढ़ी दीवाली) मनाने की खास परम्परा हैं। दरअसल ज्योति पर्व दीपावली के उत्सव की सूचना पहाड़वाशियो को ठीक दीवाली के 11 दिन बाद मिलती है इसीलिए इसे इगास-बग्वाल नाम दिया गया। 


पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान श्रीराम के वनवास से अयोध्या लौटने की खुशी पर लोगों ने कार्तिक कृष्णपक्ष की अमावस्या को दीये जलाकर उनका स्वागत किया था। लेकिन, गढ़वाल सहित पहाड़ी क्षेत्रों में भगवान राम के लौटने की सूचना दीपावली के ग्यारह दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली थी। इसीलिए ग्रामीणों ने खुशी जाहिर करते हुए एकादशी को दीपावली का उत्सव मनाया।


एक मान्यता यह भी - 
एक और मान्यता के अनुसार गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी टिहरी के राजा महीपति शाह की सेना के सेनापति थे। करीब 400 साल पहले राजा ने माधो सिंह को सेना लेकर तिब्बत से युद्ध करने के लिए भेजा। इसी बीच बग्वाल (दिवाली) का त्यौहार भी था, परंतु इस त्योहार तक कोई भी सैनिक वापस न आ सका। सबने सोचा माधो सिंह और उनके सैनिक युद्ध में शहीद हो गए, इसलिए किसी ने भी दिवाली (बग्वाल) नहीं मनाई। लेकिन दीपावली के ठीक 11वें दिन माधो सिंह भंडारी अपने सैनिकों के साथ तिब्बत से दवापाघाट युद्ध जीत वापस लौट आए। इसी खुशी में दिवाली मनाई गई। कहा जाता है की युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस दिन दिवाली मनाई गई थी।

ईगास-बग्वाल के दिन आतिशबाजी के बजाय भैलो खेलने की परंपरा है। भैलो को अंधेरे में उजाले का प्रतीक माना जाता है। चीड़ की सूखी लकड़ी के गठ्ठर से बने भैलो को जलाया जाता है, और फिर उसे रस्सी के सहारे इसे चारों तरफ घुमाया जाता है। भैलो के साथ नृत्य किए बिना ये पर्व अधूरा माना जाता है। 

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