रांची के जगन्नाथपुर में 332 वर्ष की ऐतिहासिक परंपराओं के अनुसार निकली रथयात्रा, राज्यपाल-सीएम ने खींचा रथ

रांची, 20 जून (आईएएनएस)। सर्व जाति-धर्म समभाव के केंद्र के रूप में प्रसिद्ध रांची के धुर्वा स्थित जगन्नाथपुर मंदिर से मंगलवार को 332 वर्ष पुरानी ऐतिहासिक परंपराओं के अनुसार रथयात्रा निकाली गई। राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय सहित लाखों लोगों ने भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा एवं भाई बलभद्र की पूजा-अर्चना की और रथ को खींचकर मौसीबाड़ी तक पहुंचाया। अनुमान है कि रथयात्रा महोत्सव में लगभग दो लाख लोगों ने भाग लिया।
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रांची, 20 जून (आईएएनएस)। सर्व जाति-धर्म समभाव के केंद्र के रूप में प्रसिद्ध रांची के धुर्वा स्थित जगन्नाथपुर मंदिर से मंगलवार को 332 वर्ष पुरानी ऐतिहासिक परंपराओं के अनुसार रथयात्रा निकाली गई। राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय सहित लाखों लोगों ने भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा एवं भाई बलभद्र की पूजा-अर्चना की और रथ को खींचकर मौसीबाड़ी तक पहुंचाया। अनुमान है कि रथयात्रा महोत्सव में लगभग दो लाख लोगों ने भाग लिया।

रांची शहर के जगन्नाथपुर में रथयात्रा की यह परंपरा 1691 में नागवंशीय राजा ऐनीनाथ शाहदेव ने शुरू की थी। ओडिशा के पुरी मंदिर में भगवान जगन्नाथ के दर्शन से मुग्ध होकर लौटे राजा ने उसी मंदिर की तर्ज पर रांची में लगभग ढाई सौ फीट ऊंची पहाड़ी पर मंदिर का निर्माण कराया था। वास्तुशिल्पीय बनावट पुरी के जगन्नाथ मंदिर से मिलती-जुलती है। मुख्य मंदिर से आधे किमी की दूरी पर मौसीबाड़ी का निर्माण किया गया है, जहां हर साल भगवान को रथ पर आरूढ़ कर नौ दिन के लिए पहुंचाया जाता है।

इस मंदिर में पूजा से लेकर भोग चढ़ाने का विधि-विधान पुरी जगन्नाथ मंदिर जैसा ही है। गर्भ गृह के आगे भोग गृह है। भोग गृह के पहले गरुड़ मंदिर है, जहां बीच में गरुड़जी विराजमान हैं। गरुड़ मंदिर के आगे चौकीदार मंदिर है। ये चारों मंदिर एक साथ बने हुए हैं। मंदिर का निर्माण सुर्खी-चूना की सहायता से प्रस्तर के खण्डों द्वारा किया गया है तथा कार्निश एवं शिखर के निर्माण में पतली ईंट का भी प्रयोग किया गया था।

6 अगस्त, 1990 को मंदिर का पिछला हिस्सा ढह गया था, जिसका पुनर्निर्माण कर फरवरी, 1992 में मंदिर को भव्य रूप दिया गया। कलिंग शैली पर इस विशाल मंदिर का पुनर्निर्माण करीब एक करोड़ की लागत से हुआ है।

इस मंदिर और यहां की रथयात्रा का सबसे अनूठा पक्ष है इसकी व्यवस्था और आयोजन में सभी धर्म के लोगों की भागीदारी। रथयात्रा के आयोजन से सक्रिय रूप से जुड़े राजपरिवार के वंशजों में एक लाल प्रवीर नाथ शाहदेव बताते हैं कि मंदिर की स्थापना के साथ ही हर वर्ग के लोगों को इसकी व्यवस्था से जोड़ा गया। सामाजिक समरसता और सर्वधर्म समभाव की एक ऐसी परंपरा शुरू की गयी, जिसमें उन्होंने हर वर्ग के लोगों को कोई न कोई जिम्मेदारी दी। मंदिर के आस-पास कुल 895 एकड़ जमीन देकर सभी जाति-धर्म के लोगों को बसाया गया था।

उरांव परिवार को मंदिर की घंटी देने की जिम्मेदारी मिली, तो तेल व भोग की सामग्री का इंतजाम भी उन्हें ही करने के लिए कहा गया। बंधन उरांव और बिमल उरांव आज भी इस जिम्मेदारी को निभा रहे हैं। मंदिर पर झंडा फहराने, पगड़ी देने और वार्षिक पूजा की व्यवस्था करने के लिए मुंडा परिवार को कहा गया। रजवार और अहीर जाति के लोगों को भगवान जगन्नाथ को मुख्य मंदिर से गर्भगृह तक ले जाने की जिम्मेवारी दी गयी। बढ़ई परिवार को रंग-रोगन की जिम्मेवारी सौंपी गयी। लोहरा परिवार को रथ की मरम्मत और कुम्हार परिवार को मिट्टी के बरतन उपलब्ध कराने के लिए कहा गया।

मंदिर की पहरेदारी की बड़ी जिम्मेदारी मुस्लिम समुदाय को सौंपी गयी थी। सैकड़ों वर्षों तक उन्होंने इस परंपरा का निर्वाह किया। पिछले कुछ वर्षों से मंदिर की सुरक्षा का इंतजाम ट्रस्ट के जिम्मे है।

-आईएएनएस

एसएनसी/एबीएम

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