मुस्लिम, मसले और सियासत : चुनावी सीजन में क्या गुल खिलाएंगे बरेलवी शोर

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मुस्लिम पर्सनल बोर्ड और मुस्लिम जमात में क्यों खिंच रहीं तलवारें

बरेली से उठी आवाजबोर्ड दिलचस्पी अब सिर्फ सियासी मामलों में

बरेलवी विचारधारा मानने वाले मुस्लिमों का बरेली सबसे बड़ा केन्द्र

मुस्लिम मसलों की चिंता आगे राजनीति में कितना गुल खिलाएगी

मुस्लिम मसलों पर मुखर मौलाना के भी रहे हैं राजनैतिक कनेक्शन

मौलाना शहाबुद्दीन के बयान आए दिन बन रहे मीडिया की सुर्खियां

दो महीने बाद निकाय चुनाव, फिर अगले साल होगा लोकसभा चुनाव

चुनावी सीजन से पहले बयानों के निकाले जा रहे कई तरह के मायने

न्यूज टुडे नेटवर्क । मुस्लिम, मसले और सियासत। ऑल इंडिया मुस्लिम जमात ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड पर मकसद से भटकने और सिर्फ सियासी सरोकार रखने के आरोप लगाकर एक नई बहस छेड़ दी है। यूपी में कुछ ही समय बाद निकाय चुनाव होने हैं। अप्रैल-मई में जब मेयर-चेयरमैन चुनाव निपटेंगे तो उस वक्त तक लोकसभा चुनाव का नगाड़ा भी बजने का माहौल बन चुका होगा। सवाल ये है कि चुनावी सीजन में मुस्लिम मसले राजनीति को कितना प्रभावित करने जा रहे हैं। और इससे भी बड़ा सवाल ये है कि राजनीति में मुस्लिम नुमाइंदगी करने वाले चमकते-उभरते चेहरों के सियासी दांव-पेंच कौम को राजनीति की किस धारा में ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। क्योंकि ये बहस रुहेलखंड की राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक धुरी बरेली से शुरू हुई है, जो बरेलवी विचारधारा मानने वाले मुस्लिमों को सबसे बड़ा केन्द्र है, इसलिए यहां के बनते-बदलते सियासी हालात पर गौर करना जरूरी है।

बरेली और आसपास की राजनीति पर बात करने से पहले ये जान लें कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड पर निशाना साधने वाले मौलाना शहाबुद्दीन रजवी बरेलवी कौन हैं? मौलाना शहाबुद्दीन बड़े इस्लामिक विद्वान होने के साथ दरगाह आला हजरत से जुड़े संगठन ऑल इंडिया मुस्लिम जमात के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। वह दीनी एवं सियासी मसलों पर लगातार अपनी बात रखते रहते हैं। हाल ही में उन्होंने बागेश्वर धाम सरकार धीरेन्द्र शास्त्री और योगगुरू रामदेव पर उनके बयानों को लेकर जोरदार तरीके से निशाना साधते हुए कहा था कि यह दोनों इस्लाम के खिलाफ साजिश कर रहे हैं। उसके बाद अब मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले मौलाना शहाबुदद्दीन बरेली के चुनावी माहौल में शुरू से खासी दिलचस्पी भी लेते दिखाई देते रहे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब देश में मोदी लहर चली थी, तो बरेली में मौलाना शहाबुद्दीन बसपा उम्मीदवार डॉ उमेश गौतम के पक्ष में खड़े नजर आए थे। यह बात अलग है कि मुस्लिम समर्थन के शोर उठने के बाद भी तब बसपा उम्मीदवार उमेश गौतम महज 1,05,927  वोट ही पाकर तीसरे नंबर पर रह गए थे। उमेश गौतम अब भाजपा में हैं और मेयर के रूप में पांच साल पूरे करने के बाद फिर पार्टी से टिकट के प्रबल दावेदार हैं।

मौजूदा हालात में बरेली मंडल की राजनैतिक तस्वीर देखें तो सिवाय बरेली के कहीं पर भी विधानसभा में मुस्लिम लीडरशिप नजर नहीं आती है। 2022 में शाहजहांपुर, बदायूं और पीलीभीत में कोई मुस्लिम चेहरा चुनाव नहीं जीत सका, हालांकि बरेली में शहजिल इस्लाम भोजीपुरा और उताउर रहमान बहेड़ी सीट से सपा की टिकट पर विजयी होकर विधानसभा पहुंचने में कामयाब रहे। बरेली आसपास मुखर होकर मुस्लिम राजनीति करने वाली मौलाना तौकीर की पार्टी आईएमसी चुनाव में कांग्रेस का साथ दे रही थी मगर बाबजूद इसके कांग्रेसी हालत पतली ही नजर आई और पूरे बरेली मंडल में जीरो पर आउट हो गई। यही हालात बसपा के रहे, जिसका एक भी प्रत्याशी जीत की दहलीज पहुंचना तो दूर, ज्यादातर मुख्य मुकाबले से ही दूर दिखाई दिए।

 

आबादी के हिसाब से रुहेलखंड में मुस्लिम समाज की बड़ी भागीदारी हैं, इसके बाद भी राजनीति में मुस्लिम चेहरे कम ही चमकते देखे जाते हैं। हालांकि गौर करने वाली बात ये कि चुनाव कोई भी हो, जब भी रणभेरी बजती है तो चुनावी दंगल में पिछली बार से ज्यादा मुस्लिम लड़ाकों की भीड़ पूरे दमखम से मैदान में उतरती है। बरेली में मुस्लिम लीडरशिप और उनकी चुनावी कहानी दिलचस्प भी है और बहुत उलझाऊ भी। आरक्षण को लेकर कानूनी पेंच नहीं फंसता और तय वक्त पर जनरल कैटेगरी में मेयर चुनाव होता तो बरेली में शायद ही किसी प्रमुख पार्टी के पास प्रमुख मुस्लिम चेहरा उम्मीदवार के रूप में नजर आता। भाजपा का गणित सबको पता है मगर सपा, बसपा, कांग्रेस हर तरफ मेयर की महाभारत में उस वक्त हिंदू चेहरों पर दांव लगाने की तैयारी थी। 2017 में भाजपा ने बरेली मेयर मुकाबले में उमेश गौतम, सपा ने पूर्व मेयर डा आईएस तोमर, बसपा ने यूसुफ और कांग्रेस से अजय शुकला मैदान में उतरे थे। उस दौरान मेयर मुकाबला सीधे-सीधे भाजपा और सपा में सिमट गया। मुस्लिम मतों में बिखराव की वजह से सपा उम्मीदवार डॉ तोमर कुछ हजार वोटों से चुनाव हार गए और बसपा-कांग्रेस उम्मीदवार 20-20 हजार वोटों के आसपास सिमटे नजर आए थे।

सबको पता है कि उस चुनाव में सपा मुस्लिम समाज की पहली पसंद थी मगर वोटों के बिखराव ने कहानी पूरी कहानी गड़बड़ा दी। 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा, बसपा में गठबंधन था और आईएमसी भी समर्थन में थी। इसका नतीजा ये रहा कि एक मुश्त मुस्लिम वोट बरेली में सपा उम्मीदवार भगवत सरन गंगवार के पक्ष में मगर कुछ जगहों पर बिखराव की वजह से कांग्रेस उम्मीदवार प्रवीण सिंह ऐरन बाधा बन गए और सपा की चुनावी गाड़ी चार लाख वोटों के आसपास ही अटककर भाजपा के विजेता संतोष गंगवार से बहुत दूर खड़ी दिखाई दी।  2022 की चुनावी बाजी में भाजपा ने बरेली की 9 में से सात सीटों पर कब्जा जमाने में कामयाब रही थी। सियासी जानकार बाकी दो सीट भोजीपुरा और बहेड़ी में भाजपा की हार और सपा की जीत को लेकर खुलकर ये बात कहते देखे जाते हैं कि भगवा बिग्रेड ने अगर पब्लिक में अपने उम्मीदवारों के भारी विरोध की आवाज सुन-समझकर चेहरे बदल दिए होते तो सफलता 100 फीसदी तक भी पहुंच सकते थे।

बरेली में मुस्लिम राजनीति के उतार-चढ़ाव को और गहराई से समझने की कोशिश करें तो कहानी और दिलचस्प नजर आती है। मौलाना तौकीर की पार्टी आईएमसी से अभी तक सिर्फ 2012 में एक एमएलए जीते हैं और वो थे शहजिल इस्लाम। शहजिल 2022 में सपा की टिकट पर भोजीपुरा से जीतकर सदन में पहुंचे हैं। 2002 में पिता पूर्व विधायक इस्लाम साबिर का पर्चा खारिज हो गया था तो शहजिल निदर्लीय कैंट से लड़े थे थे और पहली बार जीते थे। 2007 में वह बसपा से लड़ने भोजीपुरा पहुंचे और यहां भी जीत का झंडा बुलंद किया था। 2012 में बसपा से टिकट कटने पर वह आईएमसी से मैदान में उतरे और फिर से जीत दर्ज की थी। हालांकि, बाद में सपा सरकार बनने पर वह वह आईएमसी छोड़ सपा में दाखिल हो गए। 2017 में सपा से भोजीपुरा का मैदान हार बैठे थे। शहजिल की पूरी चुनावी कहानी बताना इसलिए जरूरी है, क्योंकि इनका परिवार में मुस्लिम राजनीति में शुरू से बर्चस्व रखता है। दादा अशफाक अहमद छह बार बरेली कैंट से उनके भाई रफीक अहमद उर्फ रफ्फन एक बार एमएलए रहे थे। पिता इस्लाम साबिर भी कैंट से विधायक रह चुके हैं। कई दशक से चुनाव चाहें लोकसभा हों या विधानसभा के, साबिर-शहजिल परिवार मैदान में अधिकांश बार जरूर देखा जाता है। मौलाना तौकीर रजा खां की आईएमसी शहजिल के सहारे जीत का स्वाद जरूर चखने में कामयाब रही थी मगर उनके पहले और बाद में आईएमसी का चुनावी कागज कोरा है।

जिले के दूसरे मुस्लिम विधायक उताउर रहमान ने 2002 में बहेड़ी से बसपा की टिकट पर चुनावी पारी शुरू की थी और जीतकर सपा में कूद गए थे। मुलायम सिंह सरकार में राज्यमंत्री बने। 2007 में हारे। 2012 में जीते। 2017 में फिर शिकस्त खाई और अब 2022 में सदन में पहुंचने में कामयाब रहे। बरेली में मुस्लिम राजनीति का एक जाना-पहचाना नाम सुल्तान बेग है, जो मीरगंज से बसपा-सपा के विधायक रहे हैं मगर अब बार-बार हार मिलने की वजह से राजनीति में पिछड़ रहे हैं। एमएलए शहजिल, अताउर व पूर्व विधायक सुल्तान बेग और आईएमसी प्रमुख मौलाना तौकीर रजा खां के अलावा जिले में मुस्लिम राजनीति का दूसरा बड़ा नाम फिलहाल नजर नहीं आता है। मुस्लिम मसलों को लेकर इनमें कितना फिक्रमंद रहता है, ये जवाब जनता बता सकती है मगर ये बात खुले तौर पर पब्लिक के बीच सुनी जाती है कि आने वाले चुनाव में राजनीति के यही मुस्लिम चेहरे कौम के बीच अपनी-अपनी तरह सियासी शोर उठाते देखे जाएंगे। आईएमसी निकाय चुनाव लड़ेगी या नहीं, अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है। साथ लोकसभा चुनाव को लेकर भी आईएमसी पत्ते किस तरह खुलेंगे, ये भी भविष्य की बात है।

बरेली से मुस्लिम मसायल और मसलों को लेकर जो बयान सामने आ रहे हैं, उनका असर आगे क्या दिखने वाला है। दरगाह आला हजरत से जुड़े संगठन ऑल इंडिया मुस्लिम जमात के अध्यक्ष मौलाना शहाबुद्दीन रजवी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड पर जिस तरह से हमलावर हैं, उसके मायने क्या हैं। पर्सनल लॉ बोर्ड को मौलाना शहाबुद़दीन मकसद से भटका हुआ बताते हैं और खुलकर कहते हैं कि बोर्ड का जिस मकसद के लिए उलमा ने गठन किया था, उससे वह दूर चला गया है। बोर्ड अब सिर्फ सियासी मामलात में दिलचस्पी रखता है। मुसलमानों की तरक्की और उनके बुनियादी चीजें जैसे तालीम, तिजारत, तरबियत के मुद्दे पर बोर्ड में चर्चा नहीं होती। इस बहस के बीच अहम सवाल बरेली की फिजां में जोरशोर से तैर रहा है कि मुस्लिम मसलों की चिंता को लेकर उठ रहीं आवाजें आगे किस धारा में जाने वाली हैं ? मौलाना शहाबुद़दीन दीनी मसलों के साथ सियासत को भी बखूबी समझते हैं और चुनावी समय में अपनी तरह से कौम को मशविरे भी देते हैं। आगे उनका इशारा क्या होगा और क्या-क्या बोलेंगे ? ये देखने वाली बात होगी।

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