नेताजी की अब यादें शेष, उनके जीवन की कहानियां विशेष, यूं ही कोई मुलायम सिंह नहीं बन जाता, देखें ये खास रिपोर्ट, VIDEO...!
खास रिपोर्ट का वीडियो देखने के लिए खबर के लिंक पर क्लिक करें
न्यूज टुडे नेटवर्क। वह भीड़, भाषण और मंच का सीधा रिश्ता बनाते थे। ऊंचे मंच उनको नीचे के कार्यकर्ताओं से दूर नहीं कर पाते थे। सियासत की जिस महफिल में भी वह जाते थे, वहां दस-बीस आम कार्यकर्ताओं को नाम बुलाकर उनकी जगह अपने दिल में होने का एहसास कराते थे। नाम से मुलायम थे मगर उनके इरादे हमेशा पक्के नजर आते थे। पहलवानी के अखाड़े हों या फिर सियासत के दंगल, उनके धोबी पछाड़ के आगे बड़े-बड़े विरोधी चित्त नजर आते थे। साधारण से किसान परिवार में जन्मे। लंबे वक्त कभी पैदल तो कभी साइकिल से दौड़े। पहलवानी के दांव-पेंच सीखे। साथ-साथ मन लगाकर पढ़े । कॉलेज में लैक्चरर बने। मन ऊबा तो नौकरी छोड़ रिस्की राजनीति में कूदे। पहली बार में एमएलए ही नहीं, मंत्री बने। इसके बाद संघर्ष के बूते सियासी फलक पर अपनी खास पहचान बनाते रहे। देश के सबसे बड़े राज्य यूपी के तीन बार मुख्यमंत्री बने। फिर देश के रक्षामंत्री रूप में पड़ोसी मुल्कों अपने कड़क तेवर भी दिखाए। अपने गांव सैफई को चमकते सैफई की पहचान दिलाई।
राज्य के हर जिले में मौजूद अपने बफादार नेता, कार्यकर्ताओं के साथ अपने परिवार, रिश्तेदारों को राजनीति की राह दिखाई। ऐसे धरतीपुत्र को कुनबे के बिखराव ने शायद गहरी चोट पहुंचाई। नौबत जब पुत्र और भाई में बंटवारे की आई तो उन्होंने अपना मूक पैगाम देकर गहरी होती खाई को पाटने को कोशिशें तो बहुत कीं मगर रिश्तों की टूटी दीवार फिर पहले की तरह खड़ी नहीं हो पाई। मगर कहते हैं कि सियासत सब कुछ कराती है। कभी दोस्तों को दुश्मन बनाती है तो कभी दुश्मनों से दोस्ती के कसीदे पढ़वाती है। कौन जानता है कि सैफई के आपसी रिश्तों में अलगाव की कहानी किसको किस मुकाम तक पहुंचाई। मगर नेताजी के संघर्ष की मिसाल-बेमिसाल कहानियां उन्हें दिलोजान से चाहने वाले लाखों-करोड़ों लोगों को हमेशा याद आएंगी।*
नेताजी मुलायम सिंह यादव के करीब रहे समाजवादी लीडर बताते हैं कि उन्होंने जीवन में सिर्फ बसंत ही नहीं, पतझड़ भी बहुत करीब से देखे थे। उनका वास्ता जीवन में हर धूप छांव से पड़ा था। कई दलों में रहे। कई बड़े नेताओं की शागिर्दी भी की लेकिन उसके बाद अपना दल बनाकर विरोधियों को अपनी ताकत का एहसास हर बार कराया। वह राजनीति की ऐसी प्रयोगशाला नजर आते थे, जहां से निगाहें हमेशा लक्ष्य पर रखी जाती हैं। 70-80 के दशक में नेताजी मुलायम सिंह साइकिल से शहर-गांव नापते थे। कई बार साइकल चलाते हुए खबरनबीसों की खैर-खबर लेने उनके आफिस और घर पहुंच जाया करते थे। खांटी गांव के थे और वैसी ही सादा जिंदगी गुजारते थे। पक्के लोहियावादी थे और धर्मनिरपेक्ष विचारों में मशगूल रहते थे। जब भी जिसे याद करते थे, तो दिल्ली-लखनऊ से सीधे उस नेता को जिले में फोन लगवा देते थे। खुश होते थे प्यार लुटाते थे और नाराज होकर क्लास भी बहुत तसल्ली से लगाते थे। पार्टी के नेताओं में गुटबंदी को वह कड़ाई से खत्म कराते थे। कई बार तो अपने बहुत करीबी नेताओं को पार्टी दफ्तर और आवास से यूं बगैर मिले लौटा देते थे। ‘मुलायम राज’ में अति पावरफुल माने जाने वाले रुहेलखंड के सीनियर समाजवादी चेहरे नेताजी से प्यार में मिले अधिकार और गुस्से में दिए सबक के बारे में खुलकर बताते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को वह अपना राजनैतिक गुरु मानते थे। विरासत के सवाल पर चौधरी परिवार से उनके रास्ते अलग कर लिए थे। पहले लोकदल और फिर जनता दल की टूट 1992 में समाजवादी पार्टी के उदय पर जाकर रुकी।
मुलायम सिंह जिस बैकग्राउंड से राजनीति में आए और मजबूत होते गए, उसमें उनकी सूझबूझ के साथ हवा को भांपकर अक्सर वैसे ही फैसले लेने की क्षमता भी थी। यूपी की राजनीति में वह जब तक सक्रिय रहे, तब तक किसी ना किसी रूप में सबके लिए जरूरी बने रहे। आपातकाल में चौधरी चरण सिंह के साथ मुलायम भी जेल गए थे। हालांकि, विदेश से पढ़कर लौटे चौधरी अजीत सिंह से नेताजी की कभी पटरी नहीं खाई। कई बार उनके बयान विवादों को भी जन्म देते रहे। वैसे कहा तो यही जाता है कि छोटे कद के नेताजी का बड़ा राजनैतिक चातुर्य उन्हें और आगे ले जा सकता था मगर उनके सियासी हमसफर ही उनकी राह में सबसे बड़े गति अवरोधक बन गए। नेताजी के चाहने वाले उन्हें देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखना चाहते थे। और ये ख्वाब अधूरा ही रह गया। समाजवादियों के धरतीपुत्र उन्हें बिलखता छोड़कर दुनिया को अलविदा कह गए। नेताजी की अब यादें शेष हैं और उनके जीवन की कहानियां विशेष हैं।