जानिए, कहां मौजूद है भगवान शिव पार्वती का ये प्राचीन मन्दिर, जहां घने जंगल में राजा बेन ने छिपाया था अपने साम्राज्य के खजाने का राज

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महाभारत काल में पांडवों ने स्थापित किया था शिवलिंग, यहां है राजपूतों की आस्था का केन्द्र 

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न्यूज टुडे नेटवर्क। सावन माह में भगवान शिव के मन्दिरों में रोजाना ही भक्तों की भारी भीड़ जुट रही है। भोलेनाथ के वैसे तो कई प्राचीन मन्दिर हैं लेकिन आज हम आपको भगवान शिव और पार्वती के एक ऐसे प्राचीन मन्दिर के बारे में जानकारी देने जा रहे हैं, जहां मन्दिर और आसपास की खुदाई में आज भी 10वीं शताब्दी की प्राचीन मूर्तियां निकलती हैं। तराई के जंगलों के बीच चारों ओर वन क्षेत्र से घिरा यह मन्दिर 10वीं शताब्दी से पहले का स्थापित बताया जाता है। हम बात कर रहे हैं, तराई के जिले पीलीभीत की बीसलपुर तहसील के जंगलों में स्थापित इलाबांस देवल तीर्थ स्थान की। बीसलपुर के दियूरिया क्षेत्र के देवल गांव में यह प्राचीन धार्मिक स्थल मौजूद है।

इस मन्दिर का सीधा संबंध महाभारत काल के राजा बेन से भी जुड़ा हुआ है। इलाबांस देवल में लगे शिलापट में अनजान भाषा में लिखे लेख में राजा बेन के खजाने का पता भी बताया गया है। इतिहासकारों की मानें तो द्वापर युग में पांडवों ने अज्ञातवास के दौरान यहां भगवान शिव के शिवलिंग की स्थापना की थी। जिसके बाद से यह धार्मिक स्थल घने जंगलों के भीतर होने के कारण लोगों से छिपा रहा। महाभारत काल में ही राजा बेन का इस इलाके में साम्राज्य फैला हुआ था। इसी क्षेत्र में राजा बेन के किले भी हुआ करते थे। राजा बेन के किलों के 52 टीलों के अवशेष यहां कई सौ सालों तक दिखायी देते रहे थे वर्तमान में केवल एक ही टीला अस्तित्व में रह गया है जहां इलाबांस देवल धार्मिक स्थल मौजूद है।

प्राचीन मान्यता के अनुसार 10वीं शताब्दी में इस क्षेत्र के मडलाधिपति लल्ला और उनकी पत्नी लक्ष्मी ने यहां भव्य मन्दिर का निर्माण कराया। मन्दिर का निर्माण विक्रम सम्वत 1049 में कराया गया है। मन्दिर में 10वीं शताब्दी की बाराह देव भगवान की मूर्ति श्रद्धालुओं के विशेष आकर्षण का केन्द्र है। अंग्रेज लेखक जेम्स प्रिन्सेप की किताब में भी इस मन्दिर का जिक्र किया गया है।

इलाबांस देवल 10वीं शताब्दि के भारत का आईना है। लोधी-राजपूतों की आस्था का बड़ा केन्द्र रहे इस क्षेत्र में कभी 52 विशाल टीले थे। अब इनमें से महज एक ही टीला बचा है। यहां आज भी खेतों और टीलों में देवी-देवताओं की मूर्तियां मिलने का सिलसिला जारी है।

वाराह देव की मूर्ति वनदेवी के रूप में पूजी जाती है यहां

इलाबांस में भगवान शिव और माता पार्वती के दो मंदिर हैं। लोधी-राजपूत परिवारों से जुड़े लोग महादेव को अपना कुलदेवता और मां पार्वती को कुलदेवी मानते हैं। इस मंदिर में प्रमुख मूर्ति भगवान विष्णु के वाराह रूप है। लेकिन वर्तमान में इस मूर्ति को वनदेवी मानकर पूजा की जाती है। मूर्ति को तेल और सिंदूर से पोत दिया गया है। इसके कारण मूर्ति के पत्थर का लगातार क्षरण हो रहा है। इतना ही नहीं मूर्ति के ठीक सामने दीवार पर एक पत्थर लगा है जिसमें दसवीं शताब्दि के इतिहास को उकेरा गया है। रखरखाव के आभाव में पत्थर का लिखित दस्तावेज अब बदहाल हो चुका है। अंग्रेज लेखक जेम्स प्रिन्सेप की किताब में प्रकाशित पत्थर की ये तस्वीर बहुत अच्छी हालत में है।

खेतों में मिलती हैं प्राचीन मूर्तियां

इलाबांस में खेतों में जहां तहां प्राचीन मूर्तियां आज भी मिल जाती हैं। खेतों के गड्ढों से झांकती ऐतिहासिक ईंटे अपनी दास्तान खुद बयां करती हैं। गांव में एक युवक के घर भगवान गणेश की खंडित मूर्ति रखी है। उसे खेत में जुताई के दौरान ये मूर्ति कई टुकड़ों में मिली थी।

1829 में इतिहासकार एसएच बुल्डर्सन ने सबसे पहले बताया

इलाबांस देवल के बारे में सबसे पहले 1829 में अंग्रेज इतिहासकार एसएच बुल्डर्सन ने लिखा था। इसके बाद 1837 में जेम्स प्रिन्सेप, 1871 में सर अलेक्जेंडर कनिंघम और 1892 में ब्यूहलर ने मंदिर के बारे में लिखा। अंग्रेजों के समय में इस पर खूब काम हुआ मगर आजादी के बाद प्रदेश और देश की सरकार ने ऐतिहासिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण इलाबांस की चिंता नहीं की। रुहेलखंड विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. कमला राम बिंद के अनुसार मंदिर में जो अभिलेख मिले हैं उनमें राजपूत शासकों की वंशावली और राजनीतिक गतिविधियों का उल्लेख है। मंदिर और घरों का निर्माण पक्की ईंटों से किया गया है।

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