बाघों की संख्या 10-15 हजार पर ले जाने के लिए वैज्ञानिक योजना की जरूरत: उल्लास कारंथ

नई दिल्ली, 8 अप्रैल (आईएएनएस)। देश में बाघों की संख्या बढ़ाकर 10-15 हजार पर पहुंचाने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारत को एक स्पष्ट ²ष्टि और विज्ञान आधारित कार्य योजना की आवश्यकता है। बाघों की संख्या 3,500 करने का लक्ष्य बेहद छोटा है। महज एक प्रतिशत की वृद्धि दर पर हम यह कहकर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं कि हमने कुछ हासिल किया, जो सबसे बड़ी चिंता की बात है।
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नई दिल्ली, 8 अप्रैल (आईएएनएस)। देश में बाघों की संख्या बढ़ाकर 10-15 हजार पर पहुंचाने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारत को एक स्पष्ट ²ष्टि और विज्ञान आधारित कार्य योजना की आवश्यकता है। बाघों की संख्या 3,500 करने का लक्ष्य बेहद छोटा है। महज एक प्रतिशत की वृद्धि दर पर हम यह कहकर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं कि हमने कुछ हासिल किया, जो सबसे बड़ी चिंता की बात है।

ये बातें दुनिया के जानेमाने टाइगर बायोलॉजिस्ट उल्लास कारंथ ने कही, जो 1984 में स्थापित सेंटर फॉर वाइल्डलाइफ स्टडीज के एमेरिटस डायरेक्टर भी हैं।

प्रोजेक्ट टाइगर के 50 साल पूरे होने पर कारंत ने एक साक्षात्कार में आईएएनएस को बताया, हमने बड़ी टाइगर-ब्यूरोक्रेसी को बढ़ावा दिया है, पिछले दो दशकों में हम मिशन से भटक गए हैं। वर्ष 2004 के बाद से केंद्र में बनी सभी चार सरकारों के साथ यही समस्या रही है।

जहां अन्य बड़े सामाजिक एवं आर्थिक बदलावों के रूप में विकास साफ दिख रहा है वन्यजीव संरक्षण मरणासन्न और नौकरशाही तक सीमित होकर रह गया है।

एशिया में बिग कैट प्रजाति के संरक्षण और उनकी आबादी बढ़ाने के कार्यक्रमों से तुलना करें तो 1973 से 2004 के बीच प्रोजेक्ट टाइगर स्कीम की सफलता अनूठी मानी जा सकती है। इस सफलता के पीछे 1972 का वन्यजीव संरक्षण अधिनियम मूल कारण रहा।

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए), जिसने 2005 के बाद प्रोजेक्ट टाइगर का स्थान लिया, मेरी राय में एक विफलता रही है, जिस पर काफी पैसा भी बर्बाद हुआ और मिशन अपने असली फोकस से भी भटक गया।

उन्होंने आईएएनएस से कहा कि टाइगर रिजर्व के प्रबंधन की समीक्षा के लिए 2005 में स्थापित प्रधानमंत्री टाइगर टास्क फोर्स ने एक विशाल स्वपोषित केंद्रीय टाइगर ब्यूरोक्रेसी को जन्म दिया जिसकी जमीनी स्तर पर कार्यान्वयन की कोई जिम्मेदारी नहीं है।

बाघों की गणना का एकमात्र अभियान जो सरकार चलाती है, चाहे वह 1972-2004 के बीच पुरानी पैरों के निशान आधारित जनगणना हो या 2005 के बाद एनटीसीए का राष्ट्रीय बाघ अनुमान (एनटीई), दोनों चार साल के अंतराल पर होते हैं।

बाघों की अच्छी तरह गणना करने समर्थक कारंत ने कहा, दोनों में पारिस्थितिक और सांख्यिकीय रूप से कई खामियां हैं। एनटीई की खामियां अब अच्छी पता चल चुकी हैं। शुरू में मैंने इसकी गंभीर आलोचना की थी। बाद में कई अन्य वैज्ञानिकों भी इसकी आलोचना की।

इसके बवजूद सब कुछ वैसा ही चल रहा है। चमकदार कवर वाले रिपोर्ट प्रकाशित की जा रही है जिनमें आंकड़ों और विश्लेषण का सर्वथा अभाव होता है।

दुनिया में बाघों की कुल संख्या का 70 प्रतिशत से ज्यादा भारत में हैं। केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा है कि सरकार ने टाइगर रिजर्व की संख्या बढ़ाकर 52 कर दी है जो 1973 में नौ थी। इसमें राजस्थान का रामगढ़ विषधारी टाइगर रिजर्व सबसे नया है।

कारंथ का कहना है कि मुख्यत: बाघों और वे जिन्हें खाते हैं उन जीवों के शिकार के कारण 1970 के दशक की शुरुआत में बाघ विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गए थे।

पिछले कुछ वर्षों में, दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों, मध्य भारत के कुछ हिस्सों और कॉर्बेट से काजीरंगा तक तराई क्षेत्रों में बाघों के शिकार में कमी आई है। हालांकि, मध्य और पूर्वी भारत के अन्य हिस्सों और पूरे पूर्वोत्तर पहाड़ी क्षेत्रों में जहां देश के सबसे घने वन हैं बाघों का शिकार अब भी हो रहा है।

बाघ की निगरानी के लिए कैमरा ट्रैप सैंपलिंग सख्ती से अपनाने के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने आईएएनएस से कहा कि पदचिह्नें के आधार पर गणना अब इतिहास बन चुकी है।

उन्होंने कहा, हालांकि भारी संख्या में कैमरे खरीदे और लगाए जा रहे हैं, लेकिन कुछ अनुसंधान परियोजनाओं को छोड़कर कैमरा ट्रैपिंग को अपनाने में ढिलाई बरती जा रही है। इसमें कैप्चर-रिकैप्चर मॉडल प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया जा रहा जैसा कि दावा किया गया है।

इससे भी बुरा यह है कि कैमरा ट्रैप सर्वे के साथ स्पूर सर्वेक्षण को मिलाया जा रहा है। राज्यों के बीच अधिक से अधिक बाघों का दावा करने की प्रतिस्पर्धा है, जैसा कि दशकों पहले पदचिह्न् गणना के मामले में था।

स्पूर सर्वेक्षण में जानवर के पैरों के निशान के आधार पर गणना की जाती है।

कारंथ, जिनकी नवीनतम पुस्तक अमंग टाइगर्स: फाइटिंग टू ब्रिंग बैक एशियाज बिग कैट्स है, का मानना है कि यदि बड़े वन्य जीवों का संरक्षण कर लिया जाए तो दूसरे जीवों का संरक्षण अपने-आप हो जाएगा। बाघ, हाथी, राइनो, हिम तेंदुआ, भेड़िया और बस्टर्ड ऐसी ही प्रजातियां हैं।

उन्होंने आईएएनएस को बताया, कुछ टाइगर रिजर्व जिन्हें प्रति वर्ष 3-4 करोड़ रुपए में संरक्षित किया जा सकता है, उन पर 10 गुना खर्च किया जा रहा है जबकि अन्य महत्वपूर्ण बाघ आवासों की उपेक्षा की जा रही है।

भारत में बाघों की संख्या बढ़ने के बारे में उन्होंने कहा कि बाघों की संख्या में वृद्धि के रिपोर्ट किए गए ये आंकड़े अर्थहीन हैं। 2006 में, जब सरिस्का से बाघों के विलुप्त होने के दोष से छुटकारा पाने के लिए वर्तमान गणना पद्धति शुरू की गई थी, बाघों की संख्या को बिना किसी आधार के 3,200 से घटाकर 1,400 कर दिया गया था।

इस बाजीगरी से नौकरशाही को आने वाले वर्षों में बाघों की संख्या का खेल खेलने का मौका मिल गया। भले ही हम 3,000 के वर्तमान आंकड़े को एक उचित अनुमान के रूप में लें, यह सब दिखाता है कि पिछले 50 वर्षों में हमने 1,000 बाघ जोड़े हैं, एक वार्षिक विकास दर एक प्रतिशत या उससे अधिक। अन्य एशियाई देशों की तुलना में बेहतर, लेकिन यह संख्या 10,000 के पास होनी चाहिए थी।

उन्होंने कहा कि नागालैंड से 60 साल से बाघ विलुप्त हो चुके हैं। इसका कारण स्थानीय स्तर पर शिकार और नियमों को सख्ती से लागू नहीं करा पाना है। ऐसे सुदूर इलाकों में जमीनी स्तर पर सरकारी पहुंच कम है। हमें यह देखना होगा कि वहां स्थानीय संरक्षण प्रणाली कैसे विकसित की जा सकती है।

उन्होंने कहा, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रोजेक्ट टाइगर के पहले तीन दशकों में शानदार सफलता का श्रेय राज्य वन विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को जाता है। आज भी बाघ संरक्षण के लिए ये स्थानीय पर्यवेक्षक, गार्ड और रेंजर महत्वपूर्ण हैं, न कि हाल के वर्षों बड़े पैमाने पर खड़ी की गई नौकरशाही।

--आईएएनएस

एकेजे/सीबीटी

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