दीपावली- भले ही हम कितने आधुनिक हों जाएं, लेकिन मिटटी के दियों के बिना शुद्ध पूजन संभव नहीं

आस्था के आगे नहीं टिकती आधुनिकता बरेली,न्यूज टुडे नेटवर्क। कहते हैं आस्था के आगे आधुनिकता नहीं टिकती। दीपावली का मौका है और बाजार में हजारों रूपयों के आधुनिक साजो सामान। फिर भी आस्था आधुनिकता की मोहताज नहीं है। दीपावली के मौके पर घरों दुकानों और मन्दिरों में पूजन होगा और आस्था भी उमड़ेगी। सजावट चाहें
 | 
दीपावली- भले ही हम कितने आधुनिक हों जाएं, लेकिन मिटटी के दियों के बिना शुद्ध पूजन संभव नहीं

आस्‍था के आगे नहीं टिकती आधुनिकता

बरेली,न्‍यूज टुडे नेटवर्क। कहते हैं आस्‍था के आगे आधुनिकता नहीं टिकती। दीपावली का मौका है और बाजार में हजारों रूपयों के आधुनिक साजो सामान। फिर भी आस्‍था आधुनिकता की मोहताज नहीं है। दीपावली के मौके पर घरों दुकानों और मन्‍दिरों में पूजन होगा और आस्‍था भी उमड़ेगी। सजावट चाहें कितनी भी आधुनिक हो लेकिन जब आस्‍था और पूजन की बात आती है तो हम पारंपरिक संसाधनों का प्रयोग करते ही हैं। यही बात दीपावली को लेकर प्रचलित है बाजार में इन दिनों मिटटी के दियों की बिक्री जोरों पर है। कारण सजावट के साथ साथ आस्‍था से भी जुड़ा हुआ है इसीलिए लोग पूजन के लिए दीपावली पर मिटटी के दिए जरूर खरीदते हैं। पूजन के लिए मिटटी के दियों को धार्मिक रूप से भी प्रमुख माना गया है। माना जाता है कि शुद्ध मिटटी से बनने के कारण भगवान को अर्पण करने और पूजा अर्चना करने में यह विशेष स्‍थान रखते हैं। इसी परंपरा को देखते हुए मिटटी के दियों का चलन जारी है। बाजार में मिटटी के दिए बेचने के लिए दूर दराज के गांवों से दुकानदार दुकानें लगाए बैठे हैं। शहरों की चमक दमक से दूर यह दिए पूरे साल तैयार होते हैं फिर ऐन दीवाली के मौके पर इन्‍हें बिक्री के लिए लाया जाता है और यह भारतीय परिवारों की आस्‍था से जुड़ी पहली पसंद भी होते हैं।

भले ही आधुनिकता के बाजार में घरों दुकानों को सजाने संवारने के लिए कीमती उपकरणों से बाजार भरा पड़ा हो। भले ही हजारों रूपयों के बिजली उपकरण और झालरों का चलन आधुनिकता के दौर में प्रचलन में आ हो लेकिन इन मिटटी के दियों का स्‍थान कोई भी आधुनिक सजावट का संसाधन नहीं ले सकता है।

खास दीपावली के त्‍यौहार को देखते हुए अब कुम्‍हारों के चाक तेज हो गए हैं, दियों को बनाने संवारने सुखाने पकाने का काम तेज हो गया है। ताकि आस्‍था शुद्धता से वंचित ना रह जाए।

आस्था के दरबार पर आधुनिकता का बाजार पूरी तरह हावी नहीं हो सका है। परंपराएं सिमटी जरूर हैं मगर खत्म नहीं हुई हैं। यही वजह है कि आज भी मिट्टी के दीयों का महत्व कम नहीं हुआ है। घरों को सजाने के लिए भले ही इलेक्ट्रॉनिक सामान का प्रयोग व्यापक पैमाने पर किया जा रहा हो लेकिन मंदिर में तो मिट्टी के दीप ही रोशन हो रहे हैं।